Rao Maldev (1532-1562)

आइये आज हम राव मालदेव Rao Maldev (1532-1562 ई.) के बारें में अध्ययन करेंगे

राव गंगा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राव मालदेव 5 जून, 1532 को जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उसका राज्याभिषेक सोजत में सम्पन्न हुआ। राव मालदेव गंगा का ज्येष्ठ पुत्र था। राव मालदेव को ‘हशमत वाला राजा’ कहा जाता है।  

जिस समय उसने मारवाड़ के राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली उस समय उसका अधिकार सोजत और जोधपुर के परगनों पर ही था। उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह हुमायूँ का शासन था। राव मालदेव राठौड़ वंश का प्रसिद्ध शासक हुआ।

रूठी रानी ( उम्मादे )

सन् 1536 ई. में राव मालदेव का विवाह जैसलमेर के लूणकरण की कन्या उम्मादे से हुआ। किसी कारणवश लूणकरण ने मालदेव को मारने का इरादा किया तो लूणकरण की रानी ने पुरोहित राघवदेव द्वारा यह सूचना मालदेव को भिजवा दी। संभवतः इसी कारण से मालदेव उम्मादे से अप्रसन्न हो गया और वह भी मालदेव से रूठ गई। इस कारण उम्मादे रानी को  रूठी रानी कहा जाता है।

तब से ही वह ‘रूठी रानी’ कहलाई तथा उसे अजमेर के तारागढ़ में रखा गया। जब शेरशाह के अजमेर पर आक्रमण की शंका हुई तो ईश्वरदास के माध्यम से उसे जोधपुर जाने को राजी किया गया परन्तु जोधपुर रानियों के रूखे व्यवहार की जानकारी मिलने के कारण वह गूँरोज चली गई। जब मालदेव का देहान्त हुआ तो वह सती हुई ।

सबसे पहले जब 1532 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने मेवाड़ पर चढ़ाई की, उस समय मालदेव ने अपनी सेना भेजकर विक्रमादित्य की सहायता की थी।

ख्यातों के अनुसार मालदेव ने कुम्भलगढ़ में आकर टिके हुए उदयसिंह को राणा घोषित करने तथा बनवीर के विरुद्ध लड़ने में अपना योगदान दिया था।

जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है कि 1532 ई. में राव मालदेव ने राठौड़, जैता, कूँपा आदि सरदारों को मेवाड़ के उदयसिंह की सहायतार्थ भेजा, जिसके फलस्वरूप बनवीर को निकाला गया और उदयसिंह को चित्तौड़ के सिंहासन पर बिठाया।

इसके बदले में महाराणा ने बसन्तराय नाम का हाथी और चार लाख फीरोजे पेशकशी के मालदेव के पास भेजे।

भाद्राजूण पर अधिकार

सर्वप्रथम उसने भाद्राजूण के सींधल स्वामी वीरा पर चढ़ाई कर दी। इस समय मेड़ते के स्वामी वीरमदेव ने भी उसकी सेना के साथ आकर इसमें योगदान दिया।

कई दिनों के युद्ध के बाद वीरा मारा गया और वहाँ मालदेव का अधिकार हो गया। इसके अलावा रायपुर पर भी मालदेव का अधिकार हो गया।

मालदेव की नागौर विजय

नागौर के शासक दौलतखाँ ने जब मेड़ता लेने का प्रयत्न किया तब मालदेव ने खान पर चढ़ाई कर नागौर पर अधिकार कर लिया। राव ने वीरम माँगलियांत को यहाँ का हाकिम नियुक्त कर दिया।

Rao Maldev राव मालदेव (1532-1562 ई.)

मालदेव का मेड़ता तथा अजमेर पर अधिकार

मालदेव के संबंध मेड़ता के राव वीरम से बिगड़ चुके थे। वीरम को मेड़ता से निकाल दिया गया और अजमेर से भी निकाल दिया गया। जब उसमें उसे कोई सफलता न मिली तो वह मलारणे के मुसलमान थानेदार से मिला और उसकी सहायता से रणथम्भौर के हाकिम के पास गया, जो उसे शेरशाह सूरी के पास ले गया।

पहोबा/ साहेबा का युद्ध (1542 ई.)

मालदेव ने 1542 ई. के आसपास राज्य विस्तार की इच्छा से कूँपा की अध्यक्षता में एक बड़ी सेना बीकानेर की तरफ भेजी। राव जैतसी मुकाबला करने के लिए साहेबा के मैदान में पहुँचा।

राव जैतसी, मालदेव की शक्तिशाली सेना के सामने न टिक सका और वह अनेक योद्धाओं के साथ मारा गया। मालदेव ने जांगल देश पर अधिकार स्थापित कर लिया।

राव मालदेव और हुमायूँ

शेरशाह सूरी से हारने के बाद हुमायूँ सिन्ध की ओर भागा और 1541 ई. के प्रारम्भ में भक्कर पहुँचा।

मालदेव ने इसी समय हुमायूँ के पास यह सन्देश भेजा कि वह उस शेरशाह के विरुद्ध सहायता देने के लिए तैयार है।

इस सन्देश में सूझबूझ थी, क्योंकि शेरशाह की अनुपस्थिति में मालदेव सीधा दिल्ली और आगरा की ओर कूंच कर सकता था और हुमायूँ के नाम से अपने समर्थकों की संख्या बढ़ा सकता था।

परन्तु हुमायूँ ने इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उसे थट्टा के शासक शाह हुसैन की सहायता से गुजरात विजय की आशा थी।

हुमायूँ सात माह शेवाने के घेरे में अपनी शक्ति का अपव्यय करता रहा। अब शाह हुसैन तथा यादगार मिर्जा हुमायूँ के विरोधी बन चुके थे।

इस निराशा के वातावरण से क्षुब्ध होकर हुमायूँ ने लगभग एक वर्ष के बाद मारवाड़ की ओर जाने का विचार किया। 7 मई, 1542 को हुमायूँ जोगीतीर्थ (कूल-ए-जोगी) पहुँचा।

‘जोगीतीर्थ’ पहुँचने पर मालदेव द्वारा भेजी गयी अशर्फियों तथा रसद से हुमायूँ का स्वागत किया गया। उस समय यह भी सन्देश उसके पास भेजा गया कि मालदेव हर प्रकार से हुमायूँ की सहायता के लिए तैयार है और बादशाह को बीकानेर का परगना सुपुर्द करने को तैयार है।

इतना सभी होते हुए भी बादशाह के साथी मालदेव से शंकित थे। इस संबंध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए मीर समन्दर, रायमल सोनी, अतका खाँ आदि व्यक्तियों को मालदेव के पास बारी-बारी से भेजा गया।

सभी का लगभग यही मत था कि मालदेव ऊपर से मीठी-मीठी बातें करता है, परन्तु उसका हृदय साफ नहीं हैं।

इस पर हुमायूँ ने तुरन्त अमरकोट की ओर प्रस्थान किया, लौटते हुए बादशाही दल का मालदेव की थोड़ी सी सेना ने पीछा किया जिससे भयभीत हो हुमायूँ मारवाड से भाग निकला।

Rao Maldev राव मालदेव (1532-1562 ई.)

गिरि सुमेल युद्ध (जनवरी, 1544 ई.)

बीकानेर के मंत्री नागराज ने मालदेव के विरुद्ध शेरशाह को सहायता देने के लिए चलने की प्रार्थना की थी।

मेड़ता के स्वामी वीरम ने भी शेरशाह से सहायता चाही थी। इस स्थिति को देखकर शेरशाह ने एक चाल (युक्ति निकाली) चली।

नैणसी लिखता है कि मेड़ता के वीरम ने 20 हजार रुपये मालदेव के सेनानायक कूँपा के पास भिजवाकर कहलवाया कि वह उसके लिए कम्बल खरीद लें। इसी तरह उसने जैता नामक उसी के सहयोगी के पास भी 20 हजार रुपये भेजकर यह कहलवाया कि वह उसके लिए सिरोही की तलवार खरीदे।

इसी के साथ-साथ उसने मालदेव को यह सूचना भिजवायी कि उसके सेनानायकों शत्रु से घूस लेकर उसके साथ मिल जाने का निश्चय कर लिया है। जब इसकी जाँच करवायी तो जैता और कूँपा के डेरे में रुपये मिले।

और वह युद्ध स्थल को छोड़कर अपनी सुरक्षा के प्रबन्ध में लग गया। क्योंकि इस जाँच के बाद मालदेव को धोखे का निश्चय हो गया

रेऊ के अनुसार वीरम ने शेरशाह के जाली फरमानों को ढ़ालों में सी कर गुप्तचरों के द्वारा मालदेव के सरदारों को बिकवा दिया। उसने मालदेव को भी यह सूचना भिजवायी कि युद्ध के समय मालदेव के सरदार मालदेव को  धोखा देंगे।

यदि इसमें उनको कोई सन्देह हो तो उनकी दालों में छिपे हुए फरमानों को देखा जाये। जब इसकी जाँच की गयी तो फरमान ढ़ालों में पाये गये।

मालदेव का विश्वास अपने सरदारों पर से उठ गया था। मालदेव को किसी तरह से जब यह पत्र मिला तो मालदेव ने युद्ध बेकार समझा।

इस मतभेद में मालदेव ने लगभग आधे सैनिकों को अपने साथ ले लिया और लगभग आधी सेना जैता और कँपा के साथ रहकर शेरशाह का युद्ध में मुकाबला करने को डटी रही।

Rao Maldev
Rao Maldev

Rao Maldev राव मालदेव (1532-1562 ई.)

जैतारण के निकट गिरि-सुमेल नामक स्थान पर जनवरी, 1544 में दोनों की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ जिसमें शेरशाह सूरी की बड़ी कठिनाई से विजय हुई।

तब उसने कहा था कि ‘एक मुट्ठी भर बाजरी के लिए मैं हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता। इस युद्ध में मालदेव के सबसे विश्वस्त वीर सेनानायक जैता एवं कूपा मारे गए थे।

इसके बाद शेरशाह ने जोधपुर के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया तथा वहाँ का प्रबन्ध खवास खाँ को संभला दिया।

तारीख-ए-फिरोजशाही के लेखक अब्बास खाँ शेरवानी के  अनुसार इस विजय के बाद शेरशाह ने अपनी सेना के दो भाग कर दिये। एक भाग को लेकर स्वयं अजमेर पहुँचा। और दूसरा भाग खवासखाँ और ईसाखाँ के नेतृत्व में जोधपुर की ओर गया।

 शेरशाह ने अजमेर को आसानी से अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद वह जोधपुर की ओर बढ़ा। मालदेव ने जब देखा कि शत्रुओं ने जोधपुर को चारों ओर से घेर  लिया है तो वह सिवाना के पर्वतीय भाग में चला गया।

शेरशाह के थोड़े प्रयास  के बाद जोधपुर उसके हाथ में आ गया, वीरम को मेड़ता और कल्याणमल को बीकानेर सौंपकर वह फिर अपनी राजधानी लौट गया।

जब शेरशाह की मृत्यु हो गयी तो सिवाना के पहाड़ों से मालदेव ने अपने आक्रमण अफगानों के विरुद्ध करने आरम्भ कर दिये। मालदेव ने जोधपुर पर 1545 ई. में दुबारा  अधिकार हो गया।

सामेल की लड़ाई का महत्त्व

सामेल के युद्ध के बाद राजपूतों के वैभव और स्वतन्त्रता का अध्याय समाप्त हो है जिसके पात्र पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर चौहान, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा और मालदेव थे।

पृथ्वीराज चौहान, हम्मीर चौहान, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा और मालदेव के पश्चात यहाँ से आश्रितों (मुग़ल वंश के अधीन) का एक इतिहास आरम्भ होता है, जिसके पात्र वीरम, कल्याणमल, मानसिंह, मिर्जा राजा जयसिंह, अजीतसिंह आदि थे।

Rao Maldev राव मालदेव (1532-1562 ई.)

मालदेव के अन्तिम वर्ष

मालदेव ने अपने राज्यत्व काल से अन्त तक अपना जीवन युद्धमय रखा जिससे उसकी फौलादी शक्ति धीरे-धीरे क्षीण होती गयी।

मारवाड़ में मेड़ता और जैतारण पर मुगलों का अधिकार हो गया। 1562 ई. में उसकी मृत्यु यह क्रम राजस्थान में बड़ी तेजी से बढ़ा।

राव मालदेव का व्यक्तित्व

जोधपुर के गढ़ के कोट के साथ उसने राणीसर कोट और शहरपनाह बनाया।

नांगौर गढ़ का भी जीर्णोद्धार उसके समय में हुआ था। सातलमेर, पोकरण, मालकोट, सोजत, रायपुर, गूँदोज, भाद्राजूण, रीया, सीवाना-पीपाड़, नाड़ौल, कुण्डल, फलौदी, दुनाड़ा आदि कस्बों के चारों ओर कोट बनाकर उन्हें सुदृढ़ किया।

उसने अजमेर तारागढ़ पास नूर चश्मे की तरफ के बुर्ज और कोट को बनवाया तथा पैर से चलने वाले रहट से पानी ऊपर चढ़ाने की व्यवस्था की।

उसने तारागढ़ के दुर्ग में पानी की कमी को दूर किया। उसने भी राणा सांगा की तरह अपनी दूसरी रानी के प्रभाव में आकर अपने सुयोग्य लड़के राम के बजाय चन्द्रसेन को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

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