RAJASTHAN INSCRIPTIONS IN HINDI

RAJASTHAN INSCRIPTIONS IN HINDI राजस्थान के शिलालेख हिंदी में

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राजस्थान के शिलालेख हिंदी में

अभिलेख

पुरातात्विक स्रोतों के अंतर्गत अन्य महत्त्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं । इसका मुख्य कारण उनका तिथियुक्त एवं समसामयिक होना है।

ये साधारणतः पाषाण पट्टिकाओं, स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मूर्तियों आदि पर खुदे हुए मिलते हैं।

इनमें वंशावली, विजय, दान, उपाधियाँ, शासकीय नियम, उपनियम, सामाजिक नियमावली अथवा आचार संहिता, विशेष घटना आदि का विवरण उत्कीर्ण करवाया जाता रहा है।

इनके द्वारा सामंतों, रानियों, मंत्रियों एवं अन्य गणमान्य नागरिकों द्वारा किये गये निर्माण कार्य, वीर पुरुषों का यशोगान, सतियों की महिमा आदि जानकारी मिलती है।

शिलालेखों/अभिलेखों सहायता से संस्कृतियों के विकास क्रम को समझने में भी सहायता मिलती है।

प्रारंभिक शिलालेखों की भाषा संस्कृत है, जबकि मध्यकालीन शिलालेखों की भाषा संस्कृत, फारसी, उर्दू और राजस्थानी है।

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प्रशस्ति

जिन शिलालेखों में किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे ‘प्रशस्ति’ भी कहते हैं।

महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कीर्ति स्तंभ की प्रशस्ति तथा महाराणा राजसिंह की राज प्रशस्ति विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं ।

शिलालेखों में वर्णित घटनाओं के आधार पर हमें तिथिक्रम निर्धारित करने में सहायता मिलती है।

बहुत से शिलालेख राजस्थान के विभिन्न शासकों और दिल्ली के सुल्तानों तथा मुगल सम्राटों के राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

सामान्यतः शिलालेखों की जानकारी विश्वसनीय होती है, परंतु कभी-2 उनमें अतिशयोक्तिपूर्ण (HYPERBOLIC) वर्णन भी पाया जाता है, परंतु इनकी पुष्टि अन्य साधनों से करना आवश्यक हो जाता है।

यहाँ हम राजस्थान के चुने हुए प्रमुख शिलालेखों का ही अध्ययन करेंगे, जिससे उनकी उपयोगिता का उचित मूल्यांकन हो सके।

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संस्कृत शिलालेख

घोसुण्डी शिलालेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व)

घोसुण्डी शिलालेख का लेख कई शिलाखण्डों में टूटा हुआ है, इसके कुछ टुकड़े ही उपलब्ध हो सके हैं vइस घोसुण्डी शिलालेखमें एक बड़ा खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है।

यह लेख घोसुण्डी गाँव (नगरी, चित्तौड़) से प्राप्त हुआ था। इस लेख में प्रयुक्त की गई भाषा संस्कृत और लिपि ब्राह्मी है।

प्रस्तुत लेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजा गृह के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख है।

इस लेख का महत्त्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म का प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता और अश्वमेध यज्ञ के प्रचलन आदि के कारण है।

मानमोरी अभिलेख (713 ई.)

यह लेख चित्तौड़ के पास मानसरोवर झील (MANSAROVAR LAKE) के तट से कर्नल टॉड को मिला था।

चित्तौड़ की प्राचीन स्थिति एवं मोरी वंश के इतिहास के लिए यह अभिलेख उपयोगी है। इस लेख से यह भी ज्ञात होता है कि धार्मिक भावना से अनुप्राणित होकर मानसरोवर झील का निर्माण करवाया गया था।

सारणेश्वर प्रशस्ति (953 ई.)

उदयपुर में श्मशान के सारणेश्वर नामक शिवालय पर स्थित इस प्रशस्ति से वराह मंदिर की व्यवस्था, स्थानीय व्यापार, कर, शासकीय पदाधिकारियों आदि के विषय में पता चलता है।

गोपीनाथ शर्मा के अनुसार मूलतः यह प्रशस्ति उदयपुर के आहड़ गाँव के किसी वराह मंदिर (VARAHA TEMPLE) में लगी होगी।

बाद में इसे वहाँ से हटाकर वर्तमान सारणेश्वर मंदिर के निर्माण के समय में सभा मण्डप के छबने के काम में ले ली हो।

बिजौलिया अभिलेख (1170 ई.)

यह लेख बिजौलिया कस्बे के पार्श्वनाथ मंदिर (PARSHVANATH TEMPLE) परिसर की एक बड़ी चट्टान पर उत्कीर्ण है ।

लेख संस्कृत भाषा में है और इसमें 93 पद्य हैं। यह अभिलेख चौहानों का इतिहास जानने का महत्त्वपूर्ण साधन है।

बिजौलिया अभिलेख (Bijolia Records) में उल्लिखित ‘विप्रः श्रीवत्सगोत्रेभूत्’ के आधार पर डॉ. दशरथ शर्मा ने चौहानों को वत्सगोत्र का ब्राह्मण कहा है। इस अभिलेख से तत्कालीन कृषि, धर्म तथा शिक्षा संबंधी व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है।

बिजौलिया अभिलेख (Bijolia Records) के द्वारा हमें कई स्थानों के प्राचीन नामों की जानकारी मिलती है जैसे कि जाबालिपुर (जालौर), शाकम्भरी (सांभर ), श्रीमाल (भीनमाल ) आदि ।

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चीरवे का शिलालेख (1273 ई.)

चीरवा (उदयपुर) गाँव के एक मंदिर से प्राप्त संस्कृत में 51 श्लोकों के इस शिलालेख से मेवाड़ के प्रारंभिक गुहिलवंशीय शासकों, चीरवा गाँव की स्थिति, विष्णु मंदिर की स्थापना, शिव मंदिर के लिए भू- अनुदान आदि का ज्ञान होता है, इस लेख द्वारा हमें प्रशस्तिकार रत्नप्रभसूरि, लेखक पार्श्वचन्द्र तथा शिल्पी देलहण

का बोध होता है जो उस युग के साहित्यकारों तथा कलाकारों की परंपरा में थे। लेख से गोचर भूमि, पाशुपत शैवधर्म, सती प्रथा आदि पर प्रभूत प्रकाश पड़ता है।

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रणकपुर प्रशस्ति (1439 ई.)

रणकपुर के जैन चौमुखा मंदिर में लगी इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासक बापा से कुम्भा तक की वंशावली है।

इसमें महाराणा कुम्भा की विजयों का वर्णन भी है। इस लेख में नाणक शब्द का प्रयोग मुद्रा के लिये किया गया है ।

स्थानीय भाषा में आज भी नाणा शब्द मुद्रा के लिए प्रयुक्त होता है। इस प्रशस्ति में मंदिर के सूत्रधार दीपा का उल्लेख है ।

कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति (1460 ई.)

यह प्रशस्ति कई शिलाओं पर खुदी हुई थी और सम्भवतः कीर्ति स्तम्भ की अंतिम मंजिल की ताकों पर लगाई गई थी।

किंतु अब केवल दो शिलाएँ ही उपलब्ध हैं, जिन पर प्रशस्ति है। हो सकता है कि कीर्ति स्तम्भ पर पड़ने वाली बिजली के कारण शिलाएँ टूट गई हों।

वर्तमान में 1 से 28 तथा 162 से 187 तक श्लोक उपलब्ध हैं। इनमें बापा, हम्मीर, कुम्भा आदि शासकों का वर्णन विस्तार से मिलता है।

इससे कुम्भा के व्यक्तिगत गुणों पर प्रकाश पड़ता है और उसे दानगुरु, शैलगुरु आदि विरूदों से सम्बोधित किया गया है।

इससे हमें कुम्भा द्वारा विरचित ग्रन्थों का ज्ञान होता है जिनमें चण्डीशतक, गीतगोविन्द की टीका, संगीतराज आदि प्रमुख हैं।

कुम्भा द्वारा मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं को हराना प्रशस्ति के 179वें श्लोक में वर्णित है। इस प्रशस्ति के रचयिता अत्रि और महेश थे ।

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रायसिंह की प्रशस्ति (1594 ई.)

बीकानेर दुर्ग के द्वार के पार्श्व में लगी यह प्रशस्ति बीकानेर नरेश रायसिंह के समय की है।

इस प्रशस्ति में बीकानेर (Bikaner) के संस्थापक राव बीका (Rao Bika) से रायसिंह तक के बीकानेर के शासकों की उपलब्धियों का जिक्र है।

इस प्रशस्ति से रायसिंह द्वारा मुगलों की सेवा के दौरान प्राप्त उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है।

इसमें उसकी काबुल, सिन्ध एवं कच्छ पर विजयों का वर्णन किया गया है।

इस प्रशस्ति से गढ़ निर्माण (Construction) के कार्य के सम्पादन (EDITING) का ज्ञान होता है।

इस प्रशस्ति में रायसिंह की धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का उल्लेख है ।

इस प्रशस्ति का रचयिता जैता नाम का जैन मुनि था । यह संस्कृत भाषा में है ।

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आमेर का लेख (1612 ई.)

आमेर के कछवाह वंश के इतिहास के निर्माण में यह लेख महत्त्वपूर्ण है। इसमें कछवाह शासकों को ‘रघुवंशतिलक’ कहा गया है।

इसमें पृथ्वीराज (PRITHVIRAJ), भारमल, भगवन्तदास और मानसिंह का उल्लेख है। इस लेख में मानसिंह को भगवन्तदास का पुत्र बताया गया है।

मानसिंह द्वारा जमुआ रामगढ़ के दुर्ग के निर्माण का उल्लेख है । लेख संस्कृत तथा नागरी लिपि में है ।

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जगन्नाथराय का शिलालेख (1652 ई.)

उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर के सभा मण्डप के प्रवेश द्वार पर यह शिलालेख उत्कीर्ण है।

यह शिलालेख मेवाड़ के इतिहास के लिए उपयोगी है। इसमें बापा से महाराणा जगतसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख है।

इसमें हल्दीघाटी युद्ध, महाराणा जगतसिंह के समय में उसके द्वारा किये जाने वाले दान-पुण्यों का वर्णन दिया गया है।

इसके रचयिता तैलंग ब्राह्मण कृष्णभट्ट तथा मंदिर का सूत्रधार भाणा तथा उसका पुत्र मुकुन्द था ।

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राजप्रशस्ति (1676 ई.)

राजसमन्द जिले के कांकरोली के पास राजनगर में राजसमुद्र की नौचौकी नामक बांध पर सीढ़ियों के पास वाली ताकों पर 25 बड़ी शिलाओं पर उत्कीर्ण ‘राजप्रशस्ति महाकाव्य’ देश का सबसे बड़ा शिलालेख है।

इसकी रचना बांध तैयार होने के समय राजसिंह के काल में हुई। इसका रचनाकार रणछोड़ भट्ट था ।

यह प्रशस्ति संस्कृत भाषा में है, परन्तु अंत में कुछ पंक्तियाँ हिन्दी भाषा में भी हैं।

इसमें तालाब के काम के लिए नियुक्त निरीक्षकों (APPOINTED INSPECTORS) एवं मुख्य शिल्पियों के नाम हैं।

इसमें तिथियों तथा ऐतिहासिक घटनाओं का सटीक वर्णन है। इसमें वर्णित मेवाड़ का प्रारंभिक इतिहास तो अधिक विश्वसनीय नहीं है, परंतु अन्य वर्णन तथा बाद का इतिहास उपयोगी है ।

इस प्रशस्ति में उल्लिखित है कि राजसमुद्र बांध बनवाने के कार्य का प्रारंभ दुष्काल पीड़ितों की सहायता के लिए किया गया था।

महाराणा राजसिंह की उपलब्धियों की जानकारी के लिए यह प्रशस्ति अत्यन्त उपयोगी ।

इस प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि राजसमुद्र तालाब (RAJSAMUDRA POND) की प्रतिष्ठा के अवसर पर 46,000 ब्राह्मण तथा अन्य लोग आये थे, तालाब बनवाने में महाराणा ने 1,05,07,608 रुपये व्यय किये।

यह प्रशस्ति सत्रहवीं शताब्दी के मेवाड़ के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन को जानने के लिए उपयोगी है।

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